Wednesday, June 30, 2010

प्रेम की वो साँझ

पेड़ों के झुरमुट में बीती वो शाम
दो बाल मन आपस में उलझ चुके थे
मेरे काँधे पे रखे सर अपलक बैठी रही वह
और उसकी लटों को सुलझाता रहा मैं
पंछियों की आवाज आयी तो थी मगर
फूलों की खुशबू ने छुआ भी था पर
भान न इसका उसको था और न ही मुझे
भावना के धाराप्रवाह में बह गया था दिन
प्रेम की छोटी पनडुब्बी बन गयी थी हमारा घर
आज की शाम भी वैसी ही है कोमल
पेड़ों से घिरा मै और मेरे आसपास एक सुन्दर जंगल
वो कहीं दूर टूटे दिल के टुकड़ों को समेटती होगी
मैं इन पंछियों के कोलाहल को बड़ी एकाग्रता से
सुनता हूँ, पत्तियों और फूलों से घंटों बातें करता हूँ
ऐसा नहीं है की खो दिया है प्रेम को मैंने
पर अब उसकी पनडुब्बी बना कर बहता नहीं
भावनाओं की तीव्र धारा में
जब से डूबी थी तूफ़ान में एक दिन नाव हमारी
तब से अब तक कई शाम मैंने खुद को
उबारने की कोशिश में बेजा कर दी
अब लड़ता नहीं हूँ इससे न ही जिरह करता हूँ
डूबा रहता हूँ उसी धारा में
जो बहती है बेरोकटोक निसंकोच
मुझे किनारे लगने की कोई आस नहीं है
ऐसा नहीं की डूबा हूँ जिसमें उसकी अब मुझे
प्यास नहीं है लेकिन
उसके कल कल प्रवाह को गंभीर मौन में भी
बड़ा साफ़- साफ़ सुनता हूँ
कौन कहता है मैंने सुलझा दी थी सब लटें उसकी
उनके बांधे हुए पाशों को कई वर्षों से
रोज़ रोज़ गिनता हूँ
प्रेम की वो साँझ अभी तक ह्रदय में कहीं बैठी है
कितनी भी करूँ कोशिश रोकने की खुद को
पर हर शाम उससे जा मिलता हूँ |

-गरिमा सिंह