Thursday, June 6, 2013

सूखे- सूखे आँसू ,
गीले-गीले दर्द से ,
पिघलता दिल ।
चाँदनी रातों के
अँधेरे से कभी डर जाना ।
दिन के उजाले में भी
ऊँघकर सो जाना। 
ख़ामोशी के शोर से
दिल का परेशां होना। 
भीड़ के बीच में
खुद को छुपा लेना ।
देख कर भी अनदेखा करना
उल्फत की हर नज़र को बेजा करना ।
कैसी ये खुद से कश्मकश सी है
आज भी ज़िन्दगी उलझी सी है ।
-गरिमा सिंह

Tuesday, January 15, 2013

स्वदेश क्या है?

जहाँ मैंने जन्म लिया, पला-बढा ?
जिसने मुझे आसरा दिया ?
जहाँ की सर ज़मीं पर मेरे माँ बाप का घर थी?

वो छोटा स्कूल और एक कॉलेज,
जहाँ मैंने बचपन और जवानी बिता दिए?

या फिर वह दुनिया जहाँ पर मैं बड़ा होकर पढने आया,
जहाँ मैंने नौकरी करके नाम, पैसा और औहदा कमाया?

या कि वो सब देश जहाँ बरसों बरस,
काम की तलाश में, नौकरी के बहाने,
या फिर था सिर्फ घूमने भर के लिए आया ?

मेरा देश क्या है?
मेरे लोग कौन हैं?
मैं खुद को वतन परस्त कहूँ  भी तो कैसे ?
जिस-जिस देश में गया,
मिटटी सब जगह एक ही सी थी।
लोग भी सब एक जैसी भावनाओं से भरे थे ।
जिस-जिस ज़मीं पर मैंने पाँव रखे,
उस-उस शहर ने मुझे दिल खोल  के गले लगाया।

मातृ  -भूमि क्या है?
वह जहाँ पर हमें जन्म मिला?
या वह जिसे हमने अपनी माँ सामान पवित्र समझा?
जिसने बदले में हमें सब दिया-
घर, नौकरी, दोस्त और दुनियाँ ?

हाँ  मैं "देश-भक्त" हूँ ।
मेरा देश है हर वो धरती जहाँ मैं रहता हूँ ।
और हर वो ज़मीं भी जहाँ मैं अभी तक नहीं रहा।

अपने कदमोँ  के नीचे की धरती का सम्मान करूँ,
अपने आस पास के लोगोँ  को अपना समझूँ,
यही मेरी देश-भक्ति है ।

अपने हर काम को इमानदारी से करूँ,
यही मेरी कर्मठता है ।
अपने आस पास के लोगोँ और वातावरण का ख्याल रखूं
यही मेरी ज़िम्मेदारी है |

मेरी कोई जाति, धर्म, या देश नहीं,
इंसानियत ही मेरा मज़हब है ।
ये सम्पूर्ण विश्व ही मेरा देश है ।


-गरिमा सिंह