भावनाएं अब ना बहें,
तूफानी आब में भटकी कश्ती सी ,
शोर करती एक नदी सी ,
किनारों से झगडती लहर सी,
सूखी रेगिस्तानी नदी के बंजर सी ।
भावनाएं अब ना उड़ें हवा सी,
कभी चंचल, कभी आंधी,
बदहवास सी, कभी विध्वंस मचाती ।
कभी उष्म और कभी शीत-लहर सी ।
भावनाएं अब ना रहें पृथ्वी सी,
रुकी-थमी-जमी ।
धूल की परत दर परत पाषाण सी ।
कभी पानी मिले मिटटी के पंक सी ।
कभी भूकम्प में फटी ज़मी की दरार सी ।
भावनाएं अब ना झुलसें आग सी ,
कभी अधजली, धधकती,
कभी धुआं बिखेरती बुझी हुई सी सुलगती ।
कभी शांत सी जैसे दिया-बाती ,
या कभी शहर के शहर जलाती ।
भावनाएं उड़ रहीं हैं अब हौले-हौले,
अश्रु-जल से मिलकर, नम होकर,
धरा की अग्नि से उठे हों जैसे
पुरवाई के सोंधे-सोंधे हिंडोले ।
अनगिनत पुष्पों की महक खुद में बसाये
भावनाएं मंद-मंद निरंतर मुस्कुराएं ।
भावनाएं उठ गयी हैं तत्वों से ऊपर,
भावनाएं बन गयी हैं "प्रेम-तत्व"।
-गरिमा सिंह