मै अपने अतीत की गहरी खाई
से बाहर आ तो गयी
लेकिन, कुछ था जो अन्दर ही अन्दर
मुझे सूखा कर गया था |
बारिश की कई बूँदें एक साथ मिलकर भी
उस सूखे के आभास को भिगो न सकी |
एहसास दम तोड़ कर उसी खाई में
छूट गया, और मेरे हाँथ में सिर्फ
एक लम्बी तन्हाई आ पड़ी |
देखने से लगता था मै और भी सशक्त हो गयी थी |
सत्य मै जानती थी कि मै
निश्चय ही पाषाण हो गयी थी |
उस सूखे का एहसास बस मेरी रूह ही को था |
चेहरे पर मेरे कोई शिकन नहीं थी,
देखा सभी ने मेरे चेहरे को खूब देखा,
जाना उन्होंने मुझको उथले से दायरे में,
छूता कोई जो मन को शायद वो देख पाता,
रूह में अरसे से जो एक बर्फ सी जमी थी |
कोई हवा का झोंका उसको तो छू के जाता,
वैसे तो आँधियों की कोई कमी नहीं थी |
नज़रें थी खोजती कुछ हलकी सी रौशनी में,
कोई कहीं नहीं था बस आस सी लगी थी |
अबके बरस जो आये फिर जेठ की दुपहरी ,
पिघले अगर ये चद्दर जो मुझको ढक गयी थी ,
तो मै प्रवाह बन कर रस्ता नया चुनूंगी ,
जिस जिस जगह हो सूखा उस उस जगह बहूंगी ,
पत्थर पहाड़ जंगल मेरे अधीन होंगे ,
उन सबको लांघकर ही तुमसे मै जा मिलूंगी |
निर्झरिणी की व्यथा को कोई सोचे तो कैसे सोचे,
समझे अगर उसे तो सागर ही खूब समझे |
-गरिमा सिंह
-गरिमा सिंह
Beautiful..Inspiring and Refreshing!
ReplyDeleteThank you, Raj!
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