Tuesday, March 29, 2016

तरु मै विशाल !

तरु मै विशाल केवल देखने में नहीं हूँ |
सिर्फ शीतल छाया नहीं देता,
तोड़ने भी देता हूँ पत्ते फल और अपनी डाल |
तुम मनुष्य खेलते भी हो चढ़ मुझपर,
या कि मुझपर झूले डाल,
मै पंछियों को घर और विषैले सर्प को तक,
आश्रय दे देता हूँ |
वर्षों वर्ष प्रकृति मुझपर कभी स्नेह की धूप,
कभी अघाढ़ प्रेम के बादल,
कभी प्रचंड गुस्से के तूफ़ान और सूखे को बरसाती है |
कभी वसंत बनकर बेवजह ही,
मुझपर असंख्य कलियाँ खिलाती है,
मै खुद होकर भी खुदपर कोई अधिकार नहीं जता सकता |
कभी कभी किसी की निर्मम कुल्हाड़ी
मुझको पूरा भी काट जाती है |
कि मुझको दर्द नहीं होता यह अफवाह ही है बस |
मेरे अन्दर अथाह सहनशीलता है,
पृथ्वी की तरह सभी के लिए अपनापन है,
सूर्य कि तरह सभी को मै एक ही दृष्टि से देखता हूँ |
समर्पण की भावना से मैंने,
प्रकृति के हाँथ खुद को सोँप दिया है,
जब वो मुझे हवा के पलने झुलाती है,
तब मै भी घडी दो घडी चार पल,
सुख की नींद सोता हूँ|
कहने को कभी न मरने वाला,
कई सौ साल प्राचीन वृछ हूँ लेकिन,
मेरा एक पत्ता भी मेरा नहीं है,
तरु मै विशाल सिर्फ तेरा हूँ ...
तरु मै विशाल सिर्फ तेरा हूँ |

-गरिमा सिंह

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